बिहार की शिक्षा व्यवस्था का हाल


बिहार की शिक्षा व्यवस्था चौपट हो चुकी है?

आज माता सरस्वती जी की आराधना का दिन है। वो हमें शिक्षा प्रदान करती है। इंसान के लिए 
शिक्षा विकास की आधार होती है लेकिन ये हमारे देश की बदकिस्मती है कि मोबाइल और कंप्यूटर के इक्कीसवी सदी में भी हमारे देश की कुछ आबादी शिक्षा के बुनियादी अधिकारों से वंचित है। सरकारी आंकड़ो के हिसाब से भारत में साक्षरता दर महज 74 प्रतिशत है जिसका मतलब है कि आज भी हमारे समाज का हर चौथा व्यक्ति अशिक्षित है। आज के युग में शिक्षा के बिना देश के स्वर्णिम भविष्य की कल्पना करना भी बेईमानी होगी।

अगर बिहार की बात करे तो बिहार में शिक्षा का हाल और भी बुरा है। देश में साक्षरता दर में सबसे अंतिम पायदान पर बिहार का स्थान है और साक्षरता दर महज 63 प्रतिशत है। एक सवाल ये भी है कि राज्य सरकार जिस निष्ठा से गाँधी जी के चंपारण सत्याग्रह की शताब्दी मानाने में प्रतिबद्ध है अगर उसी निष्ठा और संकल्प के साथ शिक्षा व्यवस्था में भी सुधार करने की कवायद होती तो स्थिति कुछ बेहतर होती है। शिक्षा का बजट भले ही बदल गया हो लेकिन जमीन की हकीकत नहीं बदल पायी। आज भी बिहार का शिक्षा प्रणाली वहीँ खड़ा है या उससे भी पीछे पहुँच गया है जहाँ 68 साल पहले एक महात्मा फ़कीर छोड़ कर गए थे।

आरोप – प्रत्यारोप तो बहुत होता है लेकिन कोई कभी भी इसकी जिम्मेदारी नहीं लेता। हाल के दिनों में जिस तरह बिहार में बोर्ड परीक्षा में नक़ल, टॉपर्स घोटाले, भर्ती घोटाले हुए उससे पूरे देश में बिहार के शिक्षा व्यवस्था पर सवालिया निशान लग गया है। इससे कोई इनकार नहीं कर सकता कि बिहार के छात्र अन्य राज्यो के छात्रों कि तुलना में ज्यादा मेधावी और मेहनती होते है लेकिन लाचार व्यवस्था के वजह से बिहार की तस्वीर नहीं बदल पायी।

नव उदारवाद के इस दौर में तकनीकी, मेडिकल व प्रबंधन शिक्षा के प्रति लोगों को रुझान बढ़ा है। सूबे में विकास और सुशासन का नारा देने वाले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अपने प्रथम कार्यकाल में ही प्राइमरी शिक्षकों को ठेकेदारी प्रथा में लाकर पूरी शिक्षा व्यवस्था को ही नव उदारवादी माडेल पर ढकेल दिया है। रिश्वत लेकर बड़ी संख्या में ऐसे लोगों को शिक्षक बनाया गया जिनकी खुद की बुनियाद ज्ञान काफी कमजोर थी। अब ऐसे शिक्षक भावी पीढ़ी को कैसी शिक्षा देंगे इसका अंदाजा सहजता से लगाया जा सकता है। सूबे के तमाम स्कूलों और कालजों में योग्य शिक्षकों का अभाव होता जा रहा है।

मिड डे मील, मुफ्त ड्रेस और बालिका साइकिल जैसे योजना की सफलता भले ही नीतीश कुमार को दोबारा सत्ता में दाखिल कराने में सहायक रही, लेकिन जिस तरह से नीतीश कुमार के शासन काल में शिक्षा माफियाओं का वर्चस्व बढ़ा है वह चिंता का विषय है। एक ओर राज्य सरकार द्वारा स्कूलों और कालेजों को दुरुस्त करने की बात की जा रही है, तो दूसरी ओर शिक्षा माफिया सूबे में अपनी पैठ मजबूती से बनाते जा रहे हैं। हर साल देश भर के तकनीकी शिक्षण संस्थानों में सफल वाले छात्र-छात्राओं की लंबी-चौड़ी सूची यहां से प्रकाशित होने वाली अखबारों में जोर-शोर से प्रकाशित की जाती है। साइकिल योजना को तो नये प्रारुप में ढाला तो जा रहा है और जोर-शोर से इसका प्रचार-प्रसार भी किया जा रहा है। लेकिन बुनियादी तौर पर योग्य शिक्षक को गढ़ने की कवायद देखने को नहीं मिल रही है। सूबे को बेहतर बुनियादी शिक्षा की सख्त जरूरत है।

इसकी अनदेखी करके विकास को गति देने की बात महज एक दिवास्वपन ही साबित होने वाला है। जिस तरह से हाल के दिनों में एक के बाद एक शिक्षा घोटाले हुए है बिहार में, वो सरकार के सारे दावो की पोल खोलने के लिए प्रयाप्त है। और सबसे गंभीर बात ये है कि अधिकतर मामलो में जो जिम्मेदार पद पर विराजमान है, उनकी भी संलिप्ता सामने आयी है। चमक-दमक के साथ विकास का यह कतई मतलब नहीं है कि नींव को ही कमजोर कर दिया जाये और सूबे की नई पीढ़ी को सहजता के साथ शिक्षा माफियाओं का निवाला बनने के लिए छोड़ दिया जाये।




पिछले सालो में मैट्रिक परीक्षा की एक तस्वीर सामने आयी जिसने पुरे देश में बिहार को शर्मसार कर दिया। नक़ल का खेल प्रतियोगिता का आयोजन इतने बड़े स्तर पर हो रहा था कि न किसी को पकडे जान का दर था, न जान का जोखिम। कोई पानी का पाइप पकड़ कर जेम्स बौंड की तरह ऊपर चढ़ रहा था, कोई स्कूल के छज्जे पर स्पाइडरमैन की तरह चढ़ गया था। कोई जुगाड़ लगा कर खिड़की से लटक कर खुद को सुपरमैन समझ रहा था। कोई छलांगें मार कर फिल्मी हीरो की तरह छत पर जा पहुंचा था। इन सारी मशक्कतों ने बिहार को देशभर में मजाक बना कर रख दिया है। अपने अपने बच्चों को इम्तिहान में पास कराने के लिए अध्यापक और शिक्षक जनाब चिट और पुर्जे उन तक पहुंचा रहे थे ताकि उन का भाई, बेटा, भतीजा, बेटी, बहन, विद्यार्थी आदि बगैर पढ़े लिखे ही नकल कर मैट्रिक
का इम्तिहान पास कर ले।

अपनों को नकल करा कर इम्तिहान पास कराने की जुगाड़बाजी ने बिहार के सुशासन का दावा करने वाली सरकार की छीछालेदर कर दी। उस के ऊपर से सरकार के तालीम मंत्री ने यह कह कर करेला चढ़ा नीम पर वाली स्थिति पैदा कर दी कि इस कदाचार को रोकना सरकार के बूते की बात नहीं है। राज्य की शिक्षा व्यवस्था पर पहले भी कई सवालिया निशान लगते रहे हैं, पर नकल के इस फोटो ने बिहार से पढ़े हुए होनहार विद्यार्थियों के भी मेरिट पर सवालिया निशान लगा दिया। इन अभिवाहकों को भी समझने की जरूरत है कि मेट्रिक की परीक्षा तो जैसे–तैसे पास कर लेने वाले ये छात्र जिंदगी की परीक्षा में कैसे पास होंगे?





पिछले साले ही बिहार इंटरमीडिएट परीक्षा के टॉपर्स रूबी राय (आर्ट्स) और सौरभ श्रेष्ठ (साइंस) और गणेश ठाकुर (आर्ट्स) की ख़बर अखबार, टीवी चैनल और तमाम सोशल साइट्स पर चर्चा का विषय बनी हुई है। फेसबुक पर लोगो ने बड़े बड़े लेख में कड़े शब्दो से इनकी आलोचना भी की। हर कोई उनके ‘खोखले’ रिजल्ट की आलोचना कर रहा है और बिहार की शिक्षा-व्यवस्था कठघरे में देखा गया। लेकिन वास्तविक सच तो यह है कि जिस ‘रूबी’ और ‘सौरभ’ पर हम लोग अपनी भड़ास निकाल रहे हैं वे स्वयं हमारी ‘अव्यव्स्था’ और हमारे नीति-निर्देशकों की ‘अदूरदर्शिता’ के शिकार हैं। बिहार की शिक्षा के आंकड़े इनके पोल खोलने के लिए काफी है।

आपको ये जानकर हैरत होगी कि बिहार में एक लाख की आबादी पर मात्र सात कॉलेज हैं जबकि राष्ट्रीय औसत 27 कॉलेज का है। यही नहीं, बिहार में प्रति कॉलेज 2098 विद्यार्थियों का नामांकन होता है, जबकि राष्ट्रीय औसत 764 है। ऐसे में आप कैसी शिक्षा और कैसे परिणाम की उम्मीद कर सकते हैं भला? क्या आप यकीन करेंगे कि बिहार में कई ऐसे कॉलेज हैं जिनमें कई-कई विषयों में एक भी प्राध्यापक नहीं हैं लेकिन ना केवल ‘जादुई’ तरीके से परीक्षा फॉर्म भरने के लिए जरूरी छात्रों की 75 प्रतिशत उपस्थिति पूरी हो जाती है बल्कि वे छात्र ‘रूबी’ और ‘सौरभ’ की तरह जादुई अंक भी पा लेते हैं।

हाल में ही हुए बिहार कर्मचारी चयन आयोग के प्रश्नपत्र लीक के मामले ने सरकार के प्रयासों की हवा उड़ा दी जिसमे सरकार लगातार ये दावा कर रही थी कि सरकार ने पिछले एक वर्षो में शिक्षा में काफी सुधार किये है। टॉपर्स घोटाला और फिर भर्ती घोटाला के बाद छात्रों का विश्वास भी उठ गया है। जैसे टॉपर्स घोटाले में बीएसएससी के चेयरपर्सन लालकेश्वर सिंह का नाम आया था वैसे ही भरी घोटाला में आयोग के सचिव परमेश्वर राम का नाम आया। मजे की बात तो यह कि ये सब कुछ सरकार की नाक के नीचे हो रहा होता है और सरकार कभी गांव-गांव में शराब के ठेके खुलवाने में व्यस्त होती है तो कभी बंद कराने में।

माना कि शराब जहर है और उसे बन्द करना चाहिए लेकिन इन छात्रों के जीवन में जो ‘विष’ घुल रहा है उसकी जिम्मेदारी कौन लेगा? महज खानापूरी करने वाले उपायों के बदले ठोस पहल कब होगी? क्यों नहीं इस बात की कोशिश करें कि राज्य में छात्रों की संख्या और आज की जरूरत के मुताबिक कॉलेज हों, उनमें पढ़ाने वाले शिक्षक हों और सबसे अहम बात ये कि आधारभूत ढाँचा भी हो। अगर अब भी हम नहीं चेते तो बिहार से हर साल होने वाले लाखों छात्रों का पलायन रुकने की बजाय बढ़ता ही चला जाएगा।

आज के दौर में बिहार में शिक्षा के गिरते स्तर के लिए बच्चे, गार्जियन और सरकार सभी जिम्मेदार हैं। सरकारी नौकरियों में पंचायत, प्रखंड से ले कर जिला स्तर तक की बहाली के लिए मार्क्स को ही आधार बनाया जाता रहा है। आज से 10-15 साल पहले तक परीक्षाओं में चोरी छिपे ही नकल चलती थी, पर आज तो बच्चे डंके की चोट पर नकल कर रहे हैं। इस से ज्यादा गंभीर बात यह है कि बच्चों के अभिभावक भी अब उन का साथ देने लगे हैं और सरकार के मुख्य अधिकारी ही इसमें शामिल है. अब ऐसी परीक्षा का क्या फायदा? केवल डिग्री पाने के लिए परीक्षा हो रही है? और एक सवाल हमारे समाज से भी है कि नकल करने वाले ये बच्चे कल डाक्टर, इंजीनियर, वकील, अफसर और क्लर्क बनेंगे तो किस तरह से वे अपनी जवाबदेही को पूरा करेंगे?


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